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कविता

ला झेकला

महेश चंद्र पुनेठा


(1)

ला झेकला के आसपास
आज भी
खतरे की जद में खड़े है दसियों गाँव
कुछ हवा में लटके से दिखते हैं
किसी का हाथ टूटा है किसी का पैर
किसी की गर्दन बैठ गई है
कुछ की जैसे उधेड़ दी गई हो खाल
जगह-जगह बने हैं गहरे घाव
जो बारिश होते ही रिसने से लगते हैं
अगल-बगल बहने वाले नाले-गधेरे
कभी भी बदल सकते हैं चाल
एक के ऊपर एक रखे से चट्टान
कभी भी उतर सकते हैं ढाल

आते-जाते कभी पूछो उनसे -
क्या तुम्हें डर नहीं लगता है?
क्यों रहते हो इतनी खतरनाक जगहों पर
प्रतिप्रश्न करेंगे वे -
क्या करें सा..ब
कहाँ जाएँ?
और कहाँ है ठौर हमारे लिए
सरकार के बारे में पूछने पर
कुछ नहीं बोलेंगे वे -
व्यंग्य से मुस्कराते हुए
सड़क किनारे खड़े स्मारक पर नजर गढ़ा देंगे
नाम लिखे हैं जिस पर
भादो की एक काली रात को
ला झेकला गाँव में जमींदोज हुए बयालीस जनों के
इस समय उनके आँखों की नमी
बिना कहे बहुत कुछ कह जाएगी
फिर स्मारक के बगल में बने मंदिर पर टिक जाएँगी।


(2)

के.एम.वी.एन. के विश्राम गृह में
रुके हैं पर्यटक
सामने गिरते बिर्थी फॉल को देख
रोमांचित हो रहे हैं
एक सौ पच्चीस मीटर की ऊँचाई से
पानी का गिरना
गिरना नहीं उड़ना प्रतीत हो रहा है
जैसे-जैसे बारिश बढ़ रही है
यह उड़ान तेज होती जा रही है
और बढ़ रहा है पर्यटकों का रोमांच
दूर तक गिर रही बूँदों में भीगना
भीतर तक भीगो रही है उन्हें

वहीं पार के गाँव में
अपनी खिड़की में बैठ
हुक्का-गुड़गुड़ाता बुजुर्ग
बार-बार बिर्थी फॅाल की ओर देख रहा है
उसकी आँखों में एक भय तैर रहा है
उसे ला झेकला की काली रात
याद आ रही है
उस रात भी ऐसा ही उफान था
ऐसी ही फुफकार
जब जमींदोज हो गया था पूरा गाँव

मेरी आँखें भले बिर्थी फॉल की ओर हैं
मगर मेरा मन उस बुजुर्ग के पास है
मैं इस सौंदर्य को कैसे सराहूँ?

 


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